Search This Blog

Thursday, December 31, 2015

जाड़े की रात

जाड़े की रात, अमीरों की ऐश,गरीबाें का काल
सुनसान सड़क किनारे लगी हैं बिस्तरें
जिसपे पड़े हैं गरीब बेचारे
क्या जानवर और क्या आदमी
बने हुए हैं एक- दुजे के सहारे
एक ही कम्बल और जाड़े की ठिठुरन
वो दुबके हुए हैं जीवन को बचाने
कशमकश चल रही हैं जाड़े और जीवन की
देखो कौन बचता है इस सड़क किनारे
एक दिन जी लेने पे गरीब खुश होता है
आज जीता मैं और जाड़े तुम हारे
देखो अमीरों की हस्ती उनके महफ़िल की मस्ती
खुल रही बोतले गर्म हो रही साँसे
नरम गरम बिस्तरें उसपे कमरे गर्म सारे
खाने को भी मिल रहें गरमागरम निवाले
ललकार रहे हैं कहाँ है जाड़ा
अा जाओ जरा हम तुम्हें पछाड़े
एक के लिए खेल है जिन्दगी
दुजे के साथ खेल रही जिन्दगी
भँवर मे है कश्ती खुदा की है बस्ती
अब वो जाने
उनकी मर्ज़ी कौन जाने !!!

No comments:

Post a Comment