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Sunday, January 24, 2016

लगती है चोट जब खु़द को ----

लगती है चोट जब खु़द को
दर्द कितना होता है
दुसरों के दर्द को कोई
समझता कहाँ है

मालिक तेरे जहां में
इंसानियत की कमी है
हमदर्द बनकर कोई
दर्द बाँटता कहाँ है

कहतें हैं  हम खु़द को इसां मगर
जानवर भी हमसे बेहतर हैं
कैसे किसी का क़त्ल कर
कोई ख़ुश होता है

अपने घर में भी माँ-बहनें
सबकी होतीं ही होगीं
लूटकर किसी का अस्मत कोई
कैसे मज़ा लेता है

पालते हैं लोग जानवर
घरों की रौनक बढ़ाने को
माता-पिता के लिए बस
घर मे जगह कहाँ है

क्यों जिहाद के नाम पर
क़त्लेआम होते हैं
कोई मज़हब नहीं सिखाता
फिर भी सरेआम होते हैं

ये दरिंदगी कैसी, कौन-सा धर्म है ये
कौन-सा मज़हब है जो
लहु माँगता है

उठेगी जब उनकी लाठी
कोई आवाज न होगी
वक़्त है अभी भी सँभलने का
मौक़ा एेसा मिलता कहाँ है !!!
                            

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