Search This Blog

Monday, February 1, 2016

रे मन तू कितना चंचल है

रे मन तू कितना चंचल है
कभी उड़ जाता नील गगन में
कभी भर लेता आलिंगन में
कभी बन जाता बालकृष्ण छवि
इठलाता गोकुल की गलियन में
किसी सरहद को तू न जानता
किसी मज़हब को नहीं मानता
क्या अमीर और क्या गरीब
बँध जाते तेरे सम्मोहन में
रे मन तू कितना चंचल है
बच्चे बुढ़े या जवान हो
चाहें कोई भी इंसान हो
सबके ऊपर धौंस जमाता
बचपना तेरा कभी न जाता
कभी अपना बन राह दिखाता
कभी परायों-सा नज़र भी नहीं आता
तुझे समझना तुझे परखना
किसी के वश से बाहर है
रहता सबके अंदर है
फिर भी तू सिकंदर है
रे मन तू कितना चंचल है !!

No comments:

Post a Comment