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Saturday, February 6, 2016

परायेपन के एहसास तले

जिन गलियों में बचपन बितायीं
जिन गलियों में खेली-कूदी
जिन गलियों में सखी-सहेली
जिन गलियों में आम-निमकौड़ी
सब थे मेरे संगी-साथी
ज़िंदगी बस थी हरी-भरी-सी
          माता ने तहज़ीब सिखायी
          पिता ने ताक़ीद जतायी
          भाई-बहनों का था असीम प्यार
           वो दिन थे कितने लाज़वाब
बागों में झूले लगते थे
पेड़ों पर कोयल कूँकते थे
बड़े हक़ से भाई-बहनों से झगड़ती थी
सब मेरा है,मत छुना कहती थी
अब कैसे कह पाऊँगी मैं
            याद आया मुझको वो दिन
            कहती थी जब सखियाँ हिलमिल
           आएगा एक राजकुमार
           और उनके कुछ अपने
           संग ले जाऐंगें दूर सभी
           छिनकर तुम्हें  वो हमसे
सुनकर हँसी उड़ा देती थी
दिल को मैं बहला लेती थी
पर मन ही मन में डरती थी
जिन अपनों को छोड़ जाऊँगी
जिनसे रिश्ता जोड़ने जाऊँगी
जाने कैसे लोग वो होंगें
क्या हमसे वो प्यार करेंगें
              मैं तो अपने बाग का पौंधा
              पिता ने रोंपा,माता ने सिंचा
              वहाँ से लाई गई यहाँ पर
              मगर जड़ तो रह गया वहाँ पर
              क्या फिर से लग पाऊँगी मैं
बहुत ही प्यार,स्नेह की ज़रूरत होगी
बहुत ही अपनेपन की ज़रूरत होगी
बहुत ही सब्र से सिंचने की ज़रूरत होगी
क्या इतना सब कर पाएंगें वे
              मन में अनेकों आशा-निराशा को लिये
              पहुँची थी मैं वहाँ
              पहले से ही रिश्तेदारों का
              हुजूम बरपा था वहाँ
              उन सभी अपनों में वहाँ
              मैं ही बस परायीं थीं
              उस भीड़ में मेरी ज़रूरत
              किसी को भी नहीं थी
मैंने उनकी तरफ पहला क़दम बढ़ाया
उन्होंने दुत्कार दिया
दुसरी बार बढ़ाया
उन्होंने फिर दुत्कार दिया
तीसरा क़दम बढ़ाने की
मेरी हिम्मत न हो सकी
अंदर ही अंदर सूखने लगी
परायेपन के एहसास तले !!
                       

  

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