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Friday, June 24, 2016

धूप में जल रहा था

किसी के हाथों में किताबें देख
किसी का दिल मचल रहा था
छोटी-छोटी ख़्वाहिशें पाले नन्हा दिल
ज़िंदगी की धूप में जल रहा था

दूर किसी महल में रौशनी
झिलमिला रही थी
किसी टुटी झोपड़ी में नन्हा दिया
भी कम जल रहा था
भाव को पत्थर बना कर वह
खुली आँखों से सपने बुन रहा था

वो खाने जो
पालतू जानवरों के नसीबों में थी
उस खाने पे  ललच रहा था
अपने बालापन से लड़कर
डूब-डूब कर उभर रहा था

लिख पत्थर पर कुछ  ऊटपटांग शब्द
लोगों को दिखा-दिखा चहक रहा था
कहकर  लोग अनाथ चिढ़ाते
उन शब्दों से तड़प रहा था

मात-पिता के सुख से वंचित
जहां से प्यार की उम्मीद कर रहा था
पेट की आग बुझाने के लिए
कड़ी मशक्कत  से गुज़र रहा था

याख़ुदा तुने भी क्या सोचकर
तक़दीरें बनायी थी
बनायी वो बात तो ठीक थी
उसमे मासूमों की मासुमियत क्यों पिसवायी थी
आँखे ना भर आई जब वह
तेरी रहमोकरम को तरस रहा था

छोटी छोटी ख़्वाहिशे पाले नन्हा दिल
ज़िंदगी की धूप में जल रहा था

                                
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