फिर भी चलना जरा सँभल कर के
लोग रहते हैं यहाँ पत्थर के
लोग मिलते हैं यहाँ पत्थर के
पल में अपना बना लेते हैं लोग
पल में बेगाना भी कर देते हैं लोग
ऐसे देते हैं घाव उल्फ़त के
लोग मिलते हैं यहाँ पत्थर के
दिल में कुछ और बाहर कुछ
जुबां पे रहती है गुफ़्तगू कुछ
कैसे समझे निगाहें मक़सद ये
लोग मिलते हैं यहाँ पत्थर के
जिससे बाँटे दर्द वही हँसते हैं
पीठ पीछे से वार करते हैं
इससे बेहतर मर जाये खज़र से
लोग मिलते हैं यहाँ पत्थर के
दोस्त बनकर भी दगा देते हैं
अपने बनकर भी सज़ा देते हैं
किसपे अब हो यकिन अंदर से
लोग मिलते हैं यहाँ पत्थर के
लब सिल जायें तब भी क्या हो
लफ़्ज़ जाहिर हो तब भी क्या हो
कोई नहीं सँवारता ज़िंदगी बंजर से
लोग मिलते हैं यहाँ पत्थर के
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